हिंदी में आलोचना एक विधा और आवश्यक रचना कर्म के रूप में स्थापित तो हुई है किन्तु उसे समीक्षा से ऊपर उठाकर सच्चे अर्थों में आलोचना (क्रिटिसिज्म) का स्तर प्राप्त करने में अभी लंबा समय लगेगा। मोहनकृष्ण बोहरा ऐसे आलोचकों में हैं जिनकी आलोचना संबंधी तैयारी गहरी और व्यापक है। उन्होंने अंग्रेजी तथा देशी-विदेशी आलोचना और आलोचकों का सम्यक अध्ययन किया है। प्रस्तुत पुस्तक उनके स्वतंत्र आलेखों की है किन्तु इसमें विचार की ऐसी अन्विति मिलती है जो हमारी भाषा में कभी-कभार ही मयस्सर होता है। उन्होंने टी एस इलियट पर गहराई से अध्ययन किया है तथा आधुनिक भारतीय आलोचना पर इलियट के प्रभाव का परीक्षण भी किया है। इस किताब में उनके इलियट सम्बन्धी अध्ययन के अनेक आलेख हैं जो नयी पीढ़ी के लेखकों, पाठकों और अनुसंधानकर्ताओं के लिए बेहद उपयोगी होंगे। भाषा और संस्कृति के अन्तर्सम्बन्धों पर बहस करना और इसका समय समय पर पुनरीक्षण करना आलोचना का नैतिक दायित्व है जिसे इस पुस्तक के कुछ अध्यायों में देखा जा सकता है वहीं व्यावहारिक आलोचना के भी सुन्दर उदहारण भी यहाँ देखे जा सकते हैं जिनमें जयशंकर प्रसाद, कुंवर नारायण और नंदकिशोर आचार्य की कृतियों पर आए आलेख उल्लेखनीय हैं। कहना न होगा कि वरिष्ठ आलोचक का प्रौढ़ चिंतन इस कृति में आया है और चिंतना -सर्जना का यह आलोचना प्रयास हिंदी में कभी-कभार देखने को मिलता है।