Jafri Chachcha Ab Nahi Chinhte
Sunil Dwivedi
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अप्रैल की चढ़ती गर्मी का दिन था। खचाखच सवारियों से भरी बस के अंदर का शोर प्रकाश नारायण की विचलित कर रहा था। विचलित क्या दरअसल, उनकी स्मृतियों में खलल डाल रहा था। बस के कंडक्टर को देखकर पहले तो उन्हें कोफ्त हुई फिर मन ही मन मुस्कुरा दिया।
"दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच गई लेकिन ये साला कंडक्टर का झोला टिकट और कान में खुसा पेन नहीं बदला।"
हाँ, बसें थोड़ा बेहतर हो गई थीं बाकी उन्हें कोई खास बदलाव नजर नहीं आया था। वैसी ही भीड़, चिल्ल-पों। एक और बदलाव को उन्होंने कंडक्टर की जिरह में लक्ष्य किया। पहले आठ साल तक के बच्चे को बिना टिकट यात्रा की सुविधा थी और अब तीन साल से ऊपर होते ही आधा किराया देना ही था। उन्हें याद आया है कि उनके समय में तो महिलाएँ 12 साल तक के बच्चे को गोद में बिठाकर उसके ऊपर धोती डालते हुए सीने में भींच लेती थीं। इससे कंडक्टर या रेल के टीटी को लगता था कि दूध पीता बच्चा है।
एक बात जो उन्हें थोड़ी अलग दिखी कि अब पहले की तरह मध्यमवर्ग के लोग इक्का-दुक्का ही नजर आए। ज्यादातर अभावों की लिखावट वाले चेहरे थे जिन पर कहीं न कहीं खींझ उभरी हुई थी। चेहरे पर जब कभी कोई हँसी उभरती थी तो लगता था कि जैसे यही एक सच्ची चीज बची थी जिसे कम से कम शहर में अब ढूँढना मुश्किल होता जा रहा था। उन्हें लगा कि यदि ध्यान से सुना जाए तो बस में सबकुछ था। राजनीति, आपसी रिश्ते, पारिवारिक कलह और सदा बहार हर किसी से शिकायत उस शोर में मौजूद थी। जिसे जानते तक नहीं उससे भी अपना दुखड़ा रोने में कोई संकोच नहीं। इसे सिर्फ थोड़ी बहुत बची निश्छलता ही कह सकते हैं।
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